
Aarti, B.A. (Hons) Mass Media, Jamia Millia Islamia: आज सुबह नींद से जागी और बगल में रखे फ़ोन को हाथों में लेकर ऑन किया, तभी मेरी पहली नज़र फ़ोन पर आए संदेशों पर पड़ी। आज के सारे संदेश कुछ एक जैसे दिखाई पड़ रहे थे, जो बता रहे थे कि आज ‘महिला दिवस’ है। मैं ठहरी और सोचने लगी “आज” महिला दिवस! यह “आज” मेरे ज़हन में बार-बार खटक रहा था। मैं इस “आज” का जवाब तलाश करती, तब तक मेरे ज़हन में कई और सवाल जन्म ले चुके थे।
मेरे ज़हन में खुद से और सवाल उठते, इससे पहले ही मुझे अपने इस सवाल का जवाब मिल चुका था कि आज पूरा विश्व “महिला दिवस” क्यों मनाता है। जवाब कुछ ऐसा था: यह दिन महिलाओं की उपलब्धियों का जश्न मनाने, लैंगिक समानता की वकालत करने और समाज में महिलाओं की बढ़ती भूमिका को सम्मान देने के लिए समर्पित है। मैं आपको इसके इतिहास की गहराई में लेकर नहीं जाना चाहती कि इस दिन के लिए भी पुरुषवादी सत्ता और समाज से हमारी माँ-बेटियों ने अपनी लड़ाई कैसे लड़ी!
लेकिन जब मैंने समाज में बेटियों की स्थिति की हक़ीक़त की ओर नज़र डाली, तब मेरी कलम फिर एक बार रुकी और बेटियों के साथ आए-दिन घटने वाली घटनाएँ मेरी आँखों के सामने मंडराने लगीं। जिस पर हम और हमारा समाज हमेशा चुप रहा, उस पल के लिए मेरी आँखें नम हो गईं, जिसके बाद मैं उन सभी जवाबों से इत्तफाक नहीं रख सकी, जिसके उपलक्ष्य में हम महिला दिवस मनाते हैं। मुझे लगता है कि हर वह शख्स इस बात से इत्तफाक नहीं रखता होगा कि हमारी बेटियों के लिए आज़ादी और सम्मान के नाम पर केवल एक दिन भीख में दे दिया गया है, जो केवल एक छलावा है।
जो सही मायनों में बेटियों को देखने और समझने के नज़रिए को बदलना चाहते हैं, जो यह जानते और महसूस करते हैं कि कैसे आज भी हमारे समाज में, खासकर इस दौर की युवा पीढ़ी में, बेटियों को खिलौना समझा जाता है – एक वक़्त बाद जिसकी ज़रूरत नहीं, जो अपने ही घर में तक सलामत नहीं! तभी तो बेटियों को बोझ बनाया हमने, सती से लेकर बाल विवाह, भ्रूण हत्या, तलाक़ और दहेज बनाया हमने, ऐसा रिवाज़ बनाया हमने, यह कैसा समाज बनाया हमने?
क्या वाकई बेटियां आज़ाद हैं?
अब भी मेरा एक सवाल है: क्या सच में हमारी बेटियाँ आज भी आज़ाद हैं? हर उस डर और प्रताड़ना से जो उसे अपने ही परिवार और समाज से मिला, तो कभी राह चलते गली, मोहल्ले और शहर के लफंगों से? शायद सबका जवाब होगा: नहीं, बेटियाँ आज भी आज़ाद या महफ़ूज़ तो नहीं। तो फिर मेरा एक सवाल है: जब बेटियाँ अपने ही घर में सलामत नहीं तो उनके नाम पर यह जश्न-सम्मान क्यों? सोचिएगा, ठहरिएगा, फिर आगे बढ़िएगा!
क्या मतलब होता अगर हम आज अंग्रेज़ों की ज़्यादती से आज़ाद नहीं होते और हम पर यह चस्पा कर दिया जाता कि हमें 15 अगस्त को अपनी आज़ादी का जश्न मनाना है? क्या यह नहीं होता कि हम हर उस 15 अगस्त को अपने ही ज़ख्मों पर नमक छिड़क कर दुनिया को जश्न के रूप में दिखा रहे होते! कहीं हम अपनी बेटियों के साथ भी तो ऐसा नहीं कर रहे हैं?
हमें लगता है कि 8 मार्च की हर उस सुबह सोशल मीडिया के पन्नों पर एक सुंदर सा लेख या संदेश लिखकर देश-दुनिया की बेटियों के सम्मान और उनकी हिफ़ाज़त के संकल्प की ज़िम्मेदारियाँ बखूबी निभा लेते हैं, लेकिन क्या हमने अपनी ही बहन-बेटियों से कभी यह पूछने या जानने की हिमाक़त की है कि वे सड़क पर चलते हुए, सवारियाँ चढ़ते हुए, भीड़ का हिस्सा होते हुए, अपने आस-पास के लोगों से, गली, मोहल्ले, गाँव और शहर के किसी कोने से गुज़रते हुए खुद को कभी आज़ाद और महफ़ूज़ महसूस करती हैं भी या नहीं!!
हम में से किसी ने भी कभी यह जानने या समझने की ज़रूरत नहीं की होगी। इसके उलट हमारी अपनी ही बहन या बेटी जब अपने साथ हो रहे ज़ुल्म के किसी दास्तां को बताने की हिम्मत कर भी देती, तो हम उसे समझने के बजाय उसके ही दामन पर हज़ारों दाग़ चस्पा कर देते हैं, जिससे वह अपनी जिस्म के साथ हो रही ज़ुल्म की किसी भी दास्तां को किसी से बताना भी गुनाह समझने लगती है, न जाने कौन सा शख्स उसे समझने के बजाय उसके दामन पर सौ लांछन लगा दे। यह भी डर उसके दिल में घर कर जाता है, क्योंकि उसके अपनों ने भी तो नहीं समझा था उस दर्द को, सिर्फ इस वजह से कि पड़ोसी सुनेगा, समाज क्या कहेगा, लोग क्या कहेंगे? फिर से ठहर कर सोचिएगा ज़रा कि कहीं इस रुख से बेटियों के साथ ज़ुल्म की दास्ताँ और चरम पर तो नहीं बढ़ रही!
पितृसत्तात्मक समाज की सच्चाई
मुझे 2024 की वह शाम अक्सर याद आती है, करीब कुछ 7 बज रहे होंगे। मेरे कॉलेज के एक ग्रुप में “बीबीसी” की एक डॉक्यूमेंट्री आती है, जो बिहार में नवजात बच्चियों को दुनिया दिखाने से पहले ही कभी गला दबाकर, तो कभी नमक चटाकर मौत की नींद सुला देने की एक दर्दनाक हादसे से जुड़ी थी। सूचनाओं की होड़ में आज की झूठी खबरों और अफवाहों से खुद को आज़ाद रखते हुए, उस डॉक्यूमेंट्री के पीछे एक पत्रकार ने अपने जीवन के 20 साल लगा दिए थे। जो चीख-चीखकर बता रही थी कि दुःख में एक बेटी है, कभी पैदा होने से पहले तो कभी जन्म लेने के बाद आज भी मार दी जाती है! “मौत” जिसके साथ दुनिया में मेरा हर ख्वाब मर जाता है!
उस डॉक्यूमेंट्री के कई दृश्यों ने मुझे रुलाया। फिर ख्याल आया, मैं भी तो एक माँ की बेटी हूँ, जो किसी बाबा की बेटी थी। उसके बिना वजूद तो नहीं मेरा इस कायनात में, शायद किसी का वजूद नहीं यहाँ एक माँ के बगैर। हाँ, वही माँ जो कभी अपने बाबा की गुड़िया हुआ करती थी, फिर एक बंधन ने उसे माँ बना दिया। मैं अक्सर सोचती और ठहर जाती हूँ। उसी माँ की कोख से जन्मा यह पुरुष इतना आदमखोर कैसे हो गए? जन्म लेने वाली मेरी बेटियों को जन्म से पहले या बाद में गला घोंट देने का हक उसे कब और किसने दे दिया? कहीं पुरुष लालच, धन-दौलत और हवस के नशे में दिली एहसास से मुर्दा तो नहीं हो गया!!
एक सवाल आज मेरा अपने समाज की उन सभी महिलाओं से भी है जो अपनी बहू-बेटियों पर ज़ुल्म की सारी हदों से इसलिए गुज़र जाती हैं कि बहू की कोख से “पोता” ने जन्म नहीं लिया, इसका भी गुनहगार हम बेटियों को ही बना देते हैं, जबकि यह कुदरत का एक फैसला था। हो सकता है कि दोष कहीं उस माँ के बेटे में ही रहा हो, क्या हमने कभी इसको लेकर पुरुष से सवाल किया है? जवाब हर एक को पता है!
मैं कुछ और सोचती, तभी मेरी आँखों के सामने एक और दृश्य ने दबिश् दी, यह वह दृश्य था जिसकी हक़ीक़त अक्सर मुझे डराया करती है। जिस दृश्य और विचार ने मुझे चिंतित करता रहा, उस विचार से जो लड़कियों को केवल इस्तेमाल करने वाला एक सामान, माल, हवस मिटाने और उसके साथ वक़्त बिताने का वस्तु समझता है। जो यह कहते हुए ज़रा भी ग़र्ज़ नहीं करता कि लड़कियाँ तो हरेक माल और सिम कार्ड की तरह होती हैं, जिसे एक बार इस्तेमाल किया और फेंक दिया, उसे कभी आँखों का तारा मत बनाओ, भरोसा तो तुम उस पर कर ही नहीं सकते! यह सब लिखते हुए मेरी आँखें नम हैं और मेरी कलम बार-बार रुक रही है। क्योंकि मैं भी एक लड़की हूँ, उस युवा सोच का लिख रही हूँ, जिस दौर से मैं गुज़र रही हूँ। लेकिन सच को और कब तक अपनी रूह के अंदर दबाए रखती।
सच तो यह है कि जब तुम नहीं होतीं, फिर जब वे दो-चार लड़के इकठ्ठा होते हैं और आपसी बात करते हैं, तब उनकी बात “बेटी” तेरे ज़िक्र के बिना खत्म नहीं होती। महज़ कुछ मुलाकातों और बातों को छोड़। वे अक्सर किसी जानने वाली लड़कियों की खूबसूरती, उसके कपड़े, उसकी देह को लेकर न जाने कैसी-कैसी अभद्र बात कर रहे होते हैं, तो कभी राह चलती और सामने से गुज़रती लड़कियों पर कुछ ऐसी अभद्र टिप्पणी कर रहे होते हैं, जिस लिखने के क़लम भी क़ाबिल नहीं। किसी को शायद कभी यह एहसास नहीं होता कि उसी माँ की कोख से उसने जन्म लिया है, जिसके लिए इस तरह की गिरी बात कर रहा है। न कभी यह एहसास कर पाता है कि उनकी भी तो बहनें होंगी, उनके जैसे कई और लोग होंगे जो उनकी ग़ैर-मौजूदगी में उनकी बेटियों के लिए, तो कभी उनकी बहनों के लिए यही सब अभद्र बात बोल रहा होगा, सोच रहा होगा। हमने तो इस चर्चा में कई बार शादीशुदा मर्दों को भी शामिल होते देखा है, जो अभद्रता की इस चर्चा में युवाओं से एक कदम आगे निकल जाते हैं।
बेशक यह भी सच है कि सभी ऐसी बात नहीं करते, आज भी अच्छे संस्कार और बच्चे मौजूद हैं हर गाँव और शहर में, जिनकी संख्या हर रोज़ कम होती जा रही, ठीक एक सुरक्षित प्रजाति की तरह।
कभी-कभी सोचती हूँ, कितना शातिर है न यह पुरुष समाज? चरित्रहीनता का टैग कभी लड़की को नहीं दिया, उसकी नज़रों में चरित्रहीन है तो केवल बेटियाँ। क्या कभी आपको गौर या विचार करने का वक़्त मिला, कि पुरुषवादी समाज ने हमारे समाज को कितनी अभद्र गालियाँ प्रदान की हैं, क्या कभी कोई गालियाँ पुरुषों से जुड़ी होती हैं? इसका भी जवाब आप सबको पता होगा, पुरुषों ने गालियाँ भी बनाई तो केवल माँ, बहन, बेटियों के नाम पर?
न्याय की बाट जोहती बेटियां
बेटियों पर ज़ुल्म की न जाने और ऐसी कितनी दास्तानें हैं। एक वाकया है 2025 की उस शाम की जब मैं अपनी माँ के कमरे में बैठकर उनसे बात कर रही थी, तभी बात का विषय बदलता है और माँ मुझसे पूछती हैं, उसका क्या हुआ। उसको फाँसी हुई या नहीं? मैं समझ चुकी थी कि मम्मा किसकी बात कर रही हैं, कोलकाता आरजी कर मेडिकल कॉलेज में हुई उस हादसे की। माँ को मैं कैसे यह समझा पाती कि यहाँ बेटियों के साथ दरिंदगी करने वालों को सज़ा इतनी जल्दी नहीं मिलती। मैं उन्हें यह कैसे बता पाती कि एनसीआरबी के मुताबिक हर रोज़ केवल भारत में 86 बेटियों के साथ बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य की घटनाएँ सामने आती हैं, जबकि कई रिपोर्ट यह बताती हैं कि आँकड़े कहीं इससे ज़्यादा हो सकते हैं, न जाने रिपोर्ट नहीं हो पाने वाली ज़ुल्म की दास्तां की यह संख्या कितनी बड़ी होगी, कई रिपोर्ट के मानें तो 90% ऐसी घटनाएँ रिपोर्ट ही नहीं होतीं, क्योंकि आरोपी हो सकता है कि घर का ही रहा होगा? मैं उन्हें कैसे यह कह पाती कि आप जिन बेटियों के इंसाफ की बात कर रही हैं, उनकी बात अब यहाँ कोई नहीं करता। अब यहाँ बेटियों की “तस्करी” कर बलात्कार होता है, जो ड्रग्स के बाद दुनिया का सबसे बड़ा अवैध “कारोबार” बन चुका है।
मन बहुत भारी था क्योंकि कोलकाता आरजी कर रेप कांड के एक दिन बाद की एक घटना फिर से मेरे दिल में घर कर रही थी। वह भी शाम का ही वक़्त था, जब मैं और मेरा भाई दिल्ली के कनॉट प्लेस पर मौजूद कुछ महिलाओं से महिला सुरक्षा पर बात कर रहे थे, बात करने वालों में ज़्यादातर कम उम्र की लड़कियाँ थीं। ज़ाहिर है मेरे हाथ में माइक था और मेरा ध्यान भी पूरी तरह से उस सवाल पर, तभी बातचीत के दौरान एक लड़की बोलती है, बेटियाँ कहाँ सुरक्षित हैं, हम तो अपने घर में भी सुरक्षित नहीं। उसके कहने के भाव में एक पीड़ा था। मैं भी कुछ पल के लिए थम सा गई। अगर हमारी बेटियाँ हमारे ही घर में महफ़ूज़ नहीं तो इस कायनात में कौन सी जगह उनके लिए महफ़ूज़ होगा!! इसका जवाब अब मेरे पास भी नहीं था। मैं खुद में ही सोच रही थी कि हम कैसे समाज में रह रहे हैं, एक तरफ़ बेटियों के प्रति युवाओं की यह सोच, तो दूसरी तरफ बेटियों को पैदा होने से पहले और बाद में मार देने वाले वे लोग जिसे बेटे की हवस थी, उसे प्यार तो दिया मगर संस्कार न दे सका और वही बेटा अपने हवस का शिकार बनाकर एक बेटी को जीते जी मार दिया।
अब मेरी कलम पूरी तरह से रुक चुकी थी, शायद यह कहने की कोशिश कर रही थी कि तुम क्या लिख रही हो? अपराध तो रोज़ बढ़ता जा रहा है! समाज का आईना कहाँ है? मैं सोचने लगी “समाज का आईना” यानी वही पत्रकारिता जगत जिससे हताश और निराश होकर दुनिया उसे बदनाम और कायरता के रूप में देखने लगी है। जो दुनिया के हिस्सों में चल रही सूडान, म्यांमार, यूक्रेन और फिलिस्तीन जैसे मानव नरसंहार पर सच बोल न सका, महज़ कुछ को छोड़कर। वही मीडिया जो मणिपुर, बंगाल, यूपी और बिहार में हुई बेटियों के साथ बलात्कार पर न बोल सका, न तब बोल सका जब हमारी बेटियों के साथ इज़्ज़त-दरी कर दिल्ली की सड़कों पर घसीटा गया, जिस तरह से बोलना और लिखना चाहिए था। न वह तब बोल सका जब बीएचयू के कैंपस में हमारी 3 बेटियों के साथ बलात्कार की घटना सामने आई, न ही वह तब बोल सका जब जम्मू की एक छोटी सी गुड़िया को बलात्कार और मौत के आरोपियों को माला पहनाया गया, वह तब भी न बोल सका जिस तरह से बोलना चाहिए था, जब हाथरस में एक बेटी के बलात्कार और मौत के आरोपियों को बचाने के लिए या ख़बर को दुनिया से छिपाने के लिए रात के अँधेरे में अंतिम संस्कार कर दिया गया। जब मैं यह लिख रही हूँ तब तक 3 और बेटियाँ हवस और दरिंदगी का शिकार बन चुकी हैं, जिसमें से एक बेटी के साथ 20 दिन तक दरिंदगी होती रही।
आप सोच रहे होंगे कि मैं किसकी-किसकी बात कर रही हूँ, हाँ मैं कोलकाता की उस बेटी की बात कर रही हूँ, मैं बात कर रही हूँ बिहार की उस बेटी की जिसे घर से उठाकर ले जाया गया और हवस का शिकार बना कर मार दिया गया, यह दरिंदगी की सारी हद पार कर देने वाली घटना थी, जिसमें दरिंदे बेटी को घर से उठाकर ले गए थे। मैं बात कर रही हूँ उन तमाम माँ, बहन और बेटी की जिसके लिए मीडिया और हमारा समाज कभी न लिख सका न बोल सका। खासकर अपनी परों में बेड़ियाँ डाल चुकी सत्ता के अंधकार में लीन हमारा भारतीय मीडिया।
मौन की कीमत
ऐसा हो सकता है कि दिन-रात हिंदू-मुसलमान करने और समाज में नफ़रत का ज़हर घोलने वाली मीडिया को इन सभी घटनाओं पर लिखने और बोलने के लिए शायद कोई ऐसा मुद्दा न मिला होगा जो नफ़रत की आग पैदा कर हमारी इस खूबसूरत समाज को बाँट सके। मैं बेहद हताश और हैरान हूँ कि जहाँ मीडिया और सभी सरकारें चुप रहीं, वहीं हम भी बेटियों के साथ होने वाली ज़ुल्म की ऐसी तमाम दर्दनाक और शर्मनाक घटनाओं पर चुप बैठे दिखे, तभी तो बेटियों के साथ ज़ुल्म की यह दास्ताँ वक़्त के साथ बढ़ती चली जा रही है। तभी तो निर्भया जैसा इंसाफ किसी और बेटी को न मिल सका। आज क्या याद है हमें, या भूल गए, हम तो अक्सर अपने बड़ों से सुना करते हैं कि कैसे निर्भया के इंसाफ के लिए पूरा का पूरा हिंदुस्तान दिल्ली की सड़कों पर उतर आया था, तब जाकर मिला था एक बेटी को इंसाफ। तब शायद समाज हिंदू और मुसलमान में नहीं बँटा था। आज लगता है कि लोग बेटियों के साथ होने वाले हर ज़ुल्म के खिलाफ हक और इंसाफ के लिए बोलना और लड़ना भूल गए। लेकिन याद रहे, बेटियों के साथ हुई उन सभी ज़ुल्म के ज़िम्मेदार हम भी हैं, वो भी हैं, जो हर उस ज़ुल्म के खिलाफ बोल न सका।
अब इस बात का एहसास होने लगा है कि बोलना कितना ज़रूरी था, हर उस ज़ुल्म के खिलाफ! कल भी, आज भी कितना ज़रूरी है! एक फरियाद है, अगर मेरी कलम की आवाज़ आप तक पहुँचे, बेटे को अपने घर में इतना संस्कार ज़रूर दीजिएगा कि वह राह चलते, सफ़र करते किसी बेटी पर अभद्र टिप्पणी न कर सके, न ही किसी बेटी को खिलौने की तरह समझे। तब जाकर हमारी बेटियाँ सही मायनों में आज़ाद होंगी हर उस डर से, जिसे हमने उसे दिया है, जब उनकी ज़ुल्म और हक़ की लड़ाई हम भी लड़ेंगे तब जाकर सही मायनों में आज़ाद होंगी हमारी बेटियाँ हर उस डर से जो हमने उसे दिया।
ज़ुल्म की ऐसी न जाने कितनी ही दास्तानें हैं। जिस्म क्या है, रूह तक सब कुछ खुलासा देखिए, आप भी इस भीड़ में न घुसकर तमाशा देखिए! जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम की मिजाज़, उस बेटी के चेहरे पर डर और हताश देखिए!